ओह ! वो पूरब के ‘व्योंम’,
घिरते आते ‘घनश्याम’,
जस सुबाम पश्च केशपाश ,
तस शुचि व्योंम पश्च घिरते घनश्याम ।
उमड़ि-घुमड़ि , चमकि-दमकि,
विजन अम्बर में करते रोर,
मनहुँ ‘देव’ दुंदभि बजावति
खल दल भाजति चहुँओर ।
मेघ ध्वनि करते इति-जोर
नभ का हिल जाता ओर-छोर ।
प्रतनु हृदय तरजति,
कैसी है, ये धुधकारि,
स्वगृह वातायनों से झाँकति
किसकी है,ये ललकारि ।
तरु झर्झर करते घनघोर
बढ़ता जाता वेग अति जोर
काली-घटा छाती जाती
रविमण्डल लुप्त होति चहुँओर ।
नभ से बूँदें अविरल गिरती
पृथ्वी पर रव पल-पल करतीं
इक विशेष ध्वनि करती जातीं
मानहुँ सुरबनितनि बृंद सहित
मंगलाचार गातीं जातीं ।
नदियों में दादुर ध्वनि करते
‘जलव्यालनि’ प्रेम-प्रसंग करते ।
वर्षा मन्द होती जाती
शीतल मन्द बयार चलती जाती
काली-घटा छटती जाती
अम्बर में लालिमा छाती जाती ।
विहग नीड़ों से निकलते
भोजन के लिए वे विचरते
‘नीलाम्बर’ में उड़ते जाते
सजल सन्देश देते जाते । ।
- आनन्द कुमार
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